नाटक
नाटक दृश्य-श्रव्य काव्य है, इसलिए यह लोक-चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है। जिस प्रथम प्रकरण का उल्लेख नाट्यशाखत्र में आता है उसके लेखन और अभिनय का मूल प्रेरक है–लोक चेतना। भारतेन्दु तथा उनके सहयोगियों ने इस चेतना के प्रसार के लिए नाटक को अत्यन्त उपयोगी माध्यम समझा। इसलिए स्वाभाविक था कि नाटकों में उस युग की अनेक समस्याओं को अभिव्यक्त होने का अच्छा अवसर मिलता ।
पर निवन्ध साहित्य से नाट्य साहित्य की स्थिति भिन्न थी। हिन्दी निवंधों के पूर्व हमारे यहाँ इस तरह की कोई परम्परा नहीं थी, अतः उसका विकास सर्वथा स्वतन्त्र रूप से हुआ। लेकिन इस देश में नाटक की अति दीर्घ परम्परा के रहते हुए हिन्दी नाटक का उससे कुछ ग्रहण न करना असम्भव था। इसलिए इस रघचना-प्रकार में समन्वय और अन्तर्विरोध दोनों ही अधिक दिखाई पड़ते हैं।
हिन्दी नाटकों को संस्कृत नाटक की जो हासोन्मुखी परम्परा विरासत में मिली उसे स्वस्थ नहीं माना जा सकता और भवभूति में जिस हासोन्मुखता के बीज मिलते हैं, उनका विकास सन् ईसा की दसवीं शताब्दी के पश्चात् लिखे गए संस्कृत नाटकों में साफ परिलक्षित होता है। इस समय के अधिकांश नाटक शाख््रीय अनुबंधों में विजड़ित पूर्व नाट्य कृतियों की विकृत अनुकृतियाँ मात्र हैं। मुरारि, राजशेखर, जयदेव और सेमीश्वर की नाट्य रचनाएँ इसी श्रेणी में आती हैं। मुरारि के अनर्घ राघव की कविता भी अत्यन्त साधारण कोटि की है। राजेश्वर का बाल रामायण कथानक के अनगढ़पन तथा अनुपात के अनीचित्य के कारण काफी कुख्यात हो चुका है। जयदेव का प्रसन्नराघव काव्योपजीवी, क्रियान्विति हीन तथा शिथिल है।
संस्कृत की इसी क्षयशील परम्परा में प्राणचन्द्र चौहान का ‘रामायण नाटक’ सं० १६६७) वनारसीदास का ‘समयसार’ (सं० १६६३), रघुराज नागर का ‘सभासार’ (सं० १७५७) और लछिराम का ‘करुणाभरण’ (सं० १७७२) आता है। ब्रजभाषा के इनके छन्दोवद्ध ग्रन्थों को नाटक की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। न तो काव्य की दृष्टि से इनका कोई मूल्य है और न नाटक की दृष्टि से। अनेक त्रुटियों के बावजूद भी रीवाँ नरेश विश्वनाथ सिंह (सं० १८४६-१६११) के “आनन्द रघुनन्दन’ को हिन्दी का पहला नाटक माना जा सकता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता गोपालचन्द्र का “नहुष’ (१८४१ ई०) भी “आनन्द रघुनन्दन” की भाँति ब्रजभाषा में ही लिखा गया है। खड़ीवोली में नाटक लिखने का सूत्रपात भारतेन्दु ने ही किया। बंगला नाटक रंगमंचीय दृष्टि से लिखे जा रहे थे। हिन्दी नाटकों को पारसी रंगमंच का सामना करना था, उसके सामने अलग समस्या थी।
लोक-नाटकों का साहित्यिक नाटकों से बादरायण सम्बन्ध स्थापित करना और यह दलील देना कि रासलीला, रामलीला, स्वांग, नीटंकी आदि हिन्दी नाटकों के पूर्व रूप हैं, अपने आप में रोचक होते हुए भी तर्कसंगत नहीं हैं। बँगला के गिरीशचन्द्र घोष (१६४४-१६११) ने यात्रा की कतिपय विशेषताओं को अपने नाटकों में ग्रहण किया, किन्तु इसके आधार पर नहीं कहा जा सकता कि बँगला नाटक यात्रा का परिष्कृत रूप है। संस्कृत नाटकों की इतनी लम्बी नाट्य परम्परा की उपेक्षा करते हुए लोक-नाटकों से सम्बन्ध स्थापन सम्भव भी नहीं था। भारतेन्दु ने नाट्य सर्जना के लिए संस्कृत नाटकों के साथ पाश्चात्य नाट्य तन्त्र को भी अपनाया । इस समय की माँग के अनुरूप’माटकों के प्राचीन ढाँचे में परिवर्तन करना आवश्यक था। भारतेन्दु ने अपने नाटक निबन्ध में ।लखा है–“किन्तु वर्तमान समय में इस काल के कवि तथा सामाजिक लोगों की रुचि उस काल की अपेक्षा अनेकांश में विलक्षण है, इससे सम्प्रति प्राचीन मत अवलम्बन करके नाटक आदि दृश्य काव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं बोध होता — नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना हो तो प्राचीन समस्त रीति ही परित्याग करें यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि जो सब प्राचीन रीति वा पद्धति आधुनिक सामाजिक लोगों की मतपोषिका होगी। वह सय अवश्य ग्रहण होगी ।
स्पष्ट है कि भारतेन्दु ने न तो पूर्ण रूप से प्राथीन नाट्य रूप अपनाया और न ही पाश्चात्य नाट्यरीति। उन्होंने दोनों का समन्वय किया। अपनी जगन्नाथपुरी की यात्रा में वे बंगला के नए नाटकों से परिचित हुए। उनसे प्रेरणा लेकर वे नाटक लिखने की ओर अग्रसर हुए |
भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के ‘विद्यासुन्दर’ (१८६७) नाटक के अनुवाद से होती है। रत्नाबली, पात्यंड-बिडंबन, धनंजय विजय, मुद्राराक्षस, दुर्लभवंधु कर्पूर मंजरी अनूदित हैं। कर्पूर मंजरी प्राकृत से अनूदित है और दुर्लभबंधु अंग्रेजी। अन्य नाटक संस्कृत से अनूदित किए गए हैं। सत्य-हरिश्चन्द्र पर बंगला नाटक की छाया है। इसे अर्द्धअनूदित कहा जा सकता है।
भारतेन्दु ने अनुवाद करने के लिए जिन नाटकों का चुनाव किया, वह सोद्देश्य है। रलावली के सम्बन्ध में निश्चयालक रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह उन्हीं का अनुवाद है। यदि इसे उन्हीं का मान लें तो कहना होगा कि प्रकृति से ही सहदय और रसिक होने के कारण उदयन की प्रेमकहानी में रस लेना उनके लिए अस्वाभाविक नहीं धा। अपने व्यक्तिग सामन्ती संस्कारों के कारण इस दरबारी नाटक (क्षोर्ट-प्ले) में रूचि लेना भी उनके लिए असंगत नहीं कहा जा सकता। बाद में इसे बहुत उपयोगी न समझकर ही कदाचित् उन्होंने इसे पूरा न किया हो। मुद्राराक्षस (१८७८ ई०) संस्कृत का एक श्रेष्ठ नाटक है जो शाख्ीय प्रतिबन्धों को अतिक्रमित कर जाता है। इसका कथ्य तथा शिल्प दोनों नए युग के अनुकूल तथा आधुनिकता के मेल में है। नवागत युग के लिए भारतेन्दु ने इसका अनुवाद श्रेयस्कर समझा। इस नाटक के उपसंहार में जिन गीतों का निर्देश किया गया है वे राष्ट्रीय चेतना के द्योतक ह।
बंगला नाटक “विद्यासुन्द’ के छावानुबाद का मुख्य कारण है उसमें उठाई गई प्रेम-विवाह की समस्या। अन्त में नायक का इसे बुरा कर्म बताना तथा नाबिका का इसे अपराध कहना तत्कालीन सामाजिक बन्धनों का परिणाम है। सत्यहरिश्चन्द्र की सृजन प्रेरणा को किसी न किसी बाद्य सामाजिक स्रोत में ढूँढ़ निकालने का दावा करना दूर की कीड़ी लाना है। इसे छायानुवाद माना जाय या मौलिक कृति– यह विवाद भी कोई विशेष महत्व नहीं
रखता। सच तो यह है कि जहाँ भारतेन्दु ने अपने समाज की अनेक त्रुटियों को नाटक के माध्यम से हमारे सम्मुख रखा वहाँ वे उच्चतर मानवीय आदशों को भी सामने ले आए। यह सत्य, त्याग, बलिदान के उच्चतर आदर्शों से अनुप्राणित है इनके अतिरिक्त कर्पूर-मंजरी तथा प्रयोध चन्द्रोदय के एक खंड दृश्य का अनुवाद पाछ्ण्ड विडम्बन शीर्षक से किया है। पाखण्ड-विडम्बन में मदिरा-सेवन पर प्रकारान्तर से व्यंग्य किया गया है। धनंजय-विजय का कथधानक तो पुराना ही है पर भरतवाक्य में भारतेन्दु ने जो परिवर्तन किया है, वह उनकी
आधुनिकता का परिचायक है। इसमें राजा को मदहीन होने तथा कर में छूट करने की कामना व्यक्त हुई है। शेक्सपियर के मरधेंट आफ वेनिस के दुर्लभवन्धु अनुवाद के मूल में उक्त नाटक की श्रेष्ठता के प्रति उतना आकर्षण नहीं है जितना उसमें प्रतिपादित नीतिमत्ता के प्रति। उनके मौलिक नाटकों में वैदिकी हिंसा हिसा न भवति, प्रेमयोगिनी, विषस्य
विषमीषधम्, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, नीलदेवी और सतीप्रताप की गणना की जाती है। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (१६७२ ई०) एक प्रहसन है, जिसमें धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के कुकृत्यों का मजाक उड़ाया गया है। अंधेर नगरी (१८८१) जैसा तीखा व्यंग्य इसमें नहीं है। इसमें राजकीय अस्तव्यस्तता का बड़ा ही जीवंत चित्र खींचा गया है। प्रेमयोगिनी अधूरी है। पर अपने अधूरेपन में ही एक अत्यन्त सशक्त यथधार्थवादी परम्परा को जन्म देती है। काशी के चार स्थानों में जुटने वाले भिन्न-भिन्न ढंग के व्यक्ति अपने कुत्सित व्यापारों की एकता में एक हैं। भारतेन्दु के इस वर्णन से काशी के प्रति श्रद्धालुओं को बड़ा गहरा धक्का लगता है लेकिन धर्म-प्राण काशी का यह भी एक पहलू है। ‘विषस्य विषमौषधम्’ में देशी रजवाड़ों की दुष्प्रवृत्तियों का उद्घाटन करते हुए उन्होंने उनके समर्थक अंग्रेजों को भी विष ही माना है। “भारतं दुर्दशा’ में भारत की अधोगति का बहुत ही रोचक और यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया गया है। चन्द्रावली प्रेमासक्ति का श्रेष्ठ उदाहरण है। नीलदेवी में भारतीय
नारियों के वीरत्व, पातिव्रत्य आदि गुणों को उभारा गया है। सती प्रताप में साविन्नी के माध्यम से एक उद्चादर्श की प्रतिष्ठा की गई है।
विषय-वस्तु के साथ-साथ नाट्यतंत्र के प्रति भी भारतेन्दु ने आधुनिक दृष्टिकोण ही अपनाया। नाटक नामक निवन्ध में उनका कहना है कि ‘अब नाटक में कहीं आशी प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं प्रकरी, कहीं संफेट, कहीं पंचसन्धि वा ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता नहीं रही। संस्कृत नाटक की भाँति हिन्दी नाटक में इनका अनुसन्धान करना, व किसी नाटकांग में इनको यलपूर्वक रखकर हिन्दी नाटक लिखना व्यर्थ है | प्रेम जोगिनी के पारिपाश्वक का कथन भी इसके अनुकूल है- उसके खेलने से लोगों को वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई पड़ेगा और वह नाटक भी नई-पुरानी दोनों रीति मिल के बना है। वस्तुतः समय का ठीक नमूना प्रस्तुत करने के लिए ही उन्होंने अधिकांश नाटक लिखे।
अपनी सांस्कृतिक परम्परा के प्रति पूर्णतः निष्ठावान रहते हुए उन्होंने सामान्य जीवन के विधित पात्रों–दलाल, गंगापुत्र, गड़ेरिया, कुंजड़िन, कवि, एडिटर–को अपने नाढकों में ययार्घ रूप में चित्रित किया हैं। भारत दुर्दशा में पूरा सुशिक्षित मध्यवर्ग ही पात्र है जिसे आगत संकट से देश का उद्धार करना है–इस सिलसिले में अधिक जिम्मेदारी कवि और एडिटर पर है, मुख्यतः एडिटर पर। सम्पादफ के इस दायित्व का बोध भारतेन्दु तथा उनके
सहयोगियों को अच्छी तरह*ज्ञात था। वे स्वयं सम्पादक थे और उन्होंने राष्ट्रीय चेतना को जगाने में जो निःस्वार्थ प्रयल किया वह बाद में बहुत कम देखा गया। अपने विचारों को नाटक के माध्यम से जनता तक पहुँचाने के लिए उन्होंने कई नाट्यसंस्थाएँ भी स्थापित कीं जो समय-समय पर नाटकों को रंगमंच पर उतारा करती थीं। पारसी नाटक कम्पनियों के कुरुचिपूर्ण और असामाजिक भावनाओं के परिहार का प्रयास भी उन्होंने इसी माध्यम से किया।
रंगमंच की दृष्टि से उनका सबसे महत्वपूर्ण नाटक ‘अंधेर नगरी’ है। ‘नौटंकी’ शैली पर आधारित यह नाटक अपने क्रियामक शब्दों’ से व्यंग्यात्मक गीतों से ऐसा नाट्य विंव प्रस्तुत करता है जो सामाजिक होते हुए भी समय को अतिक्रमित कर जाता है।
उस युग में इतना प्राणवान, जिन्दादिल, प्रवुद्ध और जागरूक दूसरा व्यक्तित्व नहीं मिलेगा। उन्होंने जिस महान् उद्देश्य से चालित होकर साहित्य सेवा का कार्य अपने हाथों में लिया था वह असि-धारा-ब्रत की तरह अत्यन्त दुस्तर था। इसका मूल्य भी उन्हें कम नहीं चुकाना पड़ा। बड़े-बड़े सत्ताधारियों ने उनके विरुद्ध क्या-क्या षयन्त्र नहीं किए, ब्रिटिश महाप्रभुओं ने उन्हें डराने धमकाने में क्या-क्या हथकण्डे नहीं अपनाए, पर हरिश्चन्द्र अपने
सत्य विचारों से कभी नहीं डिगे। जो कुछ उन्होंने उचित समझा, ठीक समझा, देश और जन-कल्याण के अनुकूल समझा उसे डंके की चोट कहा। उनका ब्रत भी तो था–‘पै दृढ़ब्रत श्री हरिचन्द को टरे न सत्य विचार | ‘ यह केवल अयोध्या नरेश सत्यसन्ध हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में ही सत्य नहीं था, बल्कि स्वयं भारतेन्दु के सम्बन्ध में उससे बड़ा सत्य था। इसे कुछ लोग भारतेन्दु की गर्वोक्ति मानते हैं पर यही तो उनके जीवन का सत्य था, यही तो उनके जीवन की सम्पूर्ण साधना थी। अन्यथा भारतेन्दु के स्थान पर वे भी सैयद अहमद की तरह सर
होते |
नाटक की विविध दिशाएँ
इस काल के नाटकों की मूलवर्ती विषय वस्तु तत्कालीन युगसत्य से अनुप्राणित होने के कारण पुराने स्वस्थ आचार-विचारों को परिगृहीत तथा नवीन मूल्यों को प्रस्थापित करने की ओर विशेष रूप से रही है। यह प्रवृत्ति रोमांटिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, राष्ट्रीय और व्यंग्यामक (प्रहसन) नाटकों में सर्वत्र परिलक्षित होती है।
रोमटिक नाटकों में श्रीनिवासदास (१८४१-१८६७) का “रणधीर प्रेम-मोहिनी’ (१८७७), किशोरीलाल गोस्वामी का ‘गयंक मंजरी’ नाटक उल्लेख्य है। इनके प्रणयन के मूल में आर्य चरित्र शोधन की भावना ही मुख्य रूप से क्रियाशील थी। इसका फल यह हुआ है कि दोनों में उपदेशों की भरमार हो गई है। गोस्वामी जी के उपदेश तो अपने केन्द्रीय उद्देश्य सतीधर्म की मर्यादा से सम्बद्ध हैं पर श्रीनिवास जी दुनिया भर के उपदेशों को एक ही स्थान पर एकत्र कर देना चाहते हैं।
पर विषय और विधान की दृष्टि से वे सर्वया रोमांटिक हैं। रणधीर और वीरेन्द्र अद्भुत साहसी और पराक्रमी हैं। अपनी प्रेमिकाओं को प्राप्त करने के लिए वे जिस साहस का परिचय देते हैं वह मध्यकालीन शौर्य की याद दिलाता है। बीच-बीच में कतिपय समसामयिक समस्याओं का भी सन्निवेश कर लिया गया है जैसे अमीर और गरीब का भेद, राजाओं का अत्याचार आदि | किन्तु अभी तक रीतिकालीन वातावरण से पीछा न छूट पाने के कारण सभी प्रमुख पात्रीं में छिछोरापन आ गया है। रणधीर प्रेममोहिनी का कथधानक शिधिल, अगतिपूर्ण तथा संवाद अनावश्यक रूप से लम्बे हैं।
पात्रानुकूल विभिन्न प्रकार की भाषाओं का प्रयोग इसे एक ऐसा अजायबघर बना देता है कि पाठक के पल्ले कम ही पड़ पाता है। ‘मयंक मंजरी” का कथानक अपेक्षाकृत चुस्त तथा कार्य-कारण की श्रृंखला सुसम्बद्ध है। इस नाटक की सबसे बड़ी त्रुटि है कि वह कविताओं से भरा पड़ा है जिससे नाटक के प्रवाह में काफी बाधा पड़ती है। मयंक मंजरी का नायक वीरेन्द्र तो रीतिकाल के पिछले खेवे की कविताओं में वर्णित नायक का रोल अदा करता दिखाई पड़ता है। अपने कथोपकथनों द्वारा वह शोहदा प्रतीत होने लगता है। दोनों नाटकों की नायिकाएँ टिपिकल रीतिकालीन हैं जो चुहलबाजी, छेड़छाड़, तीरे-नजर और
इशारेबाजी की कला में प्रवीण हैं। हाँ, इनका प्रेम ऐकान्तिक और एकनिष्ठ है। सब मिलकर तन्त्र और प्रतिपाध दोनों में ये रोमैटिक हैं। दोनों नाटक तन््त्रीय दृष्टि से अंग्रेजी नाट्यकला के अधिक समीप हैं। रणधीर और प्रेममोहिनी नाम ही रोमियो एण्ड जुलियट की ओर ध्यान ले जाता है। मयंक मंजरी में एक अंक में एक ही दृश्य रखा गया है। इस प्रकार की कला का जो श्रेय लक्ष्मीनारायण मिश्र को दिया जाता है वह प्रथम प्रयोक्ता होने के कारण गोस्वामी जी को मिलना चाहिए। अमानसिंह गोठिया का मयंक मंजरी भी इसी के अन्तर्गत माना जायगा।
ऐतिहासिक रोमांस
ऐतिहासिक रोमांसों को नाटक की विषय-वस्तु बनाने का मूल उद्देश्य अपने पूर्वजों के विस्मृत गौरव का स्मरण दिलाकर तत्कालीन समाज को आलगीरव का योध कराना था। इस प्रकार के नाटक भारतेन्दु की नीलदेवी की परम्परा में लिखे गए। पर राधाकृष्णदास के “महाराणा प्रतापसिंह’ के अतिरिक्त एक भी अन्य नाटक उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। श्रीनिवासदास का ‘संयोगिता स्वयंवर’, काशीनाथ खत्नी (१८४६-१८६१) का ‘“मिंधुदेश की राजकुमारियों’ और “गुन्नीर की रानी’, राधाकृष्णदास का “महारानी पद्मावती” आदि केवल
नाम के ऐतिहासिक नाटक हैं। नाटयतंत्र की दृष्टि से ‘महाराणा प्रताप मिंह’ में कई खामियाँ हैं। नाटक का द्वितीय
अंक कथावस्तु का अनिवार्य अंग नहीं वन पाया है। गुलाबतिंह और मालती का प्रणय प्रसंग जो प्रासंगिक कथावस्तु के रूप में आता है मुख्य कथा का सहायक नहीं हो सका है। किन्तु इसके सन्निवेश से नाटकीय वातावरण रसमय जरूर बन गया है। फिर भी नाटककार के मुख्य उद्देश्य की सिद्धि में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती है। महाराणा के माध्यम से जो देश प्रेम तथा भामाशाह के अभूतपूर्व तथा अविस्मरणीय त्याग से जिस उत्कट आदर्श को प्रस्तुत किया गया है वह रीष्टीय चेतना को जागरित करने में बहुत ही सफल कहा जायगा।
प्रहसन
इस काल के निबच्धों में व्यंग्य का जो पैनापन दिखाई पड़ता है वह प्रहसनों में भी दृष्टिगोचर होता है जिस उद्देश्य को लेकर, जिस लक्ष्य के लिए, लेखक साधना कर रहे थे, उसकी बहुत बड़ी पूर्ति प्रहसनों के माध्यम से हुई। उस संक्रांति काल में सामाजिक, सांस्कृतिक और वैद्यारिक परिचर्तन के लिए प्रहसन बहुत ही उपयुक्त साधन धा। इसलिए स्वाभाविक था कि लेखकों का झुकाव उस ओर होता। नई प्रगति की विरोधी सभी प्रकार की मनोवृत्तियों
पर व्यंग्य किया गया, फलस्वरूप घिप्ती पिटी रुढ़िग्रस्त मान्यताओं, अंध विश्वासों आदि को प्रहसनकारों ने अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाया। पाश्यात्य भाषा और संक्कृति में रंगे हुए लोगों को भी अच्छी ख़बर ली गई।
राधाचरण गोस्वामी (१८४८-१६२५) और खड्गवहादुर मल्ल (१८५४३-१८८६ ई०) इस काल के प्रमुख प्रहसनकार थे। गोस्वामी जी वृन्दावन के प्रतिष्ठित गोस्वामियों में थे और उनकी छद॒मलीलाओं से अच्छी तरह परिचित थे। “तन मन धन की गोसाई जी को अर्पण’ में धर्मगुरुओं के व्यभिचारों की पोल खोलकर उनका पर्दाफाश किया गया है। “बड़े मुँह मुँहासे” में परनारी गमन का दुष्परिणाम बतलाया गया है, इसमें प्रकारान्तर से हिन्दू मुस्लिम एकता की ओर भी संकेत किया गया है। गोस्वामी जी ने वृन्दावन से भारतेन्दु नामक एक पत्र भी निकाला था। खड्गबहादुर मल्ल मझौली के महाराजकुमार थे।
बांकीपुर के खड्गविलास प्रेस की स्थापना उन्हीं के नाम पर हुई थी। ठा० रामदीन तिंह के सम्पादकल में उन्होंने क्षत्रिय पत्रिका का सम्पादन भी किया था। भारत आरत’” प्रहसन में उन्होंने शासकों और ओहदेदारों की दुर्वृत्तियों तथा शासितों की दुर्बलताओं पर गहरा व्यंग्य किया है। वेयक्तिक उन्नति के लिए भाषा और धर्म का परित्याग करने वाले बंगाली बाबू की आलभर्सना देखते ही बनती है। अपनी भाषा की कदर्थना करने वाले यंगाली बाबू से अंग्रेज मजिस्ट्रेट कहता है, ‘शूअर हम तुमने अंगरेजी बोलना नई माँगता। अपना मुलुक की वोली बोलो।’ पर आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन पर उक्त मजिस्ट्रेट की गाली का कोई असर नहीं पड़ता |
देवकीनन्दन के ‘जयनार सिंह” में ओझाई के विश्वासियों पर व्यंग्य किया गया है। गोपालराम गहमरी के “देश दशा” में सरकारी अलहकारों की धाँधली को व्यंग्य का विषय बनाया गया है। अम्बिकादत्त व्यास की ‘देशी घी और चर्बी’ व्यावसायिक कुरूपता का अच्छा नमूना है।
इन प्रहसनों में पूंजीपतियों, सरमायादारों, शासकों आदि की अवांछनीय तत्वों के रूप में अंकित किया गया है जो नवीन चेतना का घोतक है। खड्गवहादुर मल््ल ने जमींदारों के मनमानेपन का संकेत देते हुए उन्हें वृश्चिक राशि का कहा है। टेकनीक की दृष्टि से इनका विशेष महत्व नहीं आऑँका जा सकता है।
सामाजिक-पौराणिक
सामाजिक नाटकों की केन्द्रीय समस्या नारी है, जो मुख्यतः सुधारवादी दृष्टिकोण से परिचालित है। इस तरह के नाटकों में बालविवाह, पर्दाप्रथा का विरोध तथा विधवा विवाह, ख्री शिक्षा आदि का समर्थन किया गया है। बालकृष्ण भट्ट के जैसा काम वैसा परिणाम,” राधाकृष्णदास के ‘दु:खिनी बाला” आदि नाटक ऐसे ही हैं। भट्टजी के नाटक में दृश्कोण की प्रीढ़ता तथा व्यंग्य का तीखापन मिलता है जो उनके व्यक्तित्व के अनुरूप है।
राधाकृष्णदास ने विधवा के स्वाभाविक शरीर धर्म को प्रस्तुत करते हुए दु:खिनी वाला लिखा था। पहले इसका नाम “विधवा विवाह” नाटक था जिसकी श्यामा भ्रुणहत्या करती है, पर ‘दुःखिनी बाला’ में सरला विषपान द्वारा आलहत्या कर लेती है। वस्तुतः विधवा-विवाह में यथार्थवादी दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है जो समाज विरोधी होने के कारण बाद में दूसरी पुस्तक में बदल जाता हैं। अभी समाज इस तरह के नग्र यथार्थ को सहन नहीं कर सकता था, इसलिए उसे एक आदर्श की ओर मोड़ना पड़ा।
बाद में चलकर समझौते की यही प्रवृत्ति प्रेमचन्द में आदर्शोन्मुख्ली यथार्थ के रूप में प्रकट हुई। लाला जवाहर लाल वैद्य का ‘कमल मोहिनी भँवर लिंह’ नाटक परनारी-गमन के विरोध में लिखा गया। गोपालराम गहमरी के ‘विद्या विनोद’ में ओझाई, अनमेल विवाह, बहु विवाह का विरोध तथा पातिव्रत्य का समर्थन किया गया है। नारी समस्या के भारतदुर्दशा के मेल में भारतोद्धार, भारत आरत, भारत सौभाग्य, देश-रक्षा आदि नाटक लिखे गए।
उपन्यास
इस कालावधि में हिन्दी उपन्यासों में मनुष्य के नए मानसिक विकास और अन्तर्विरोधों का इतिहास समाविष्ट है। आर्थिक व्यवस्था में उलटफेर, प्रेस, समाचार पत्र, शिक्षा की व्यवस्था, नए व्यावसायिक वर्ग का उदय आदि के कारण जो मध्यम वर्ग उत्पन्न हुआ उसकी बहुमुखी तथा नई समस्याओं को अभिव्यक्त करने के लिए नवीन साहित्यिक विधा की आवश्यकता हुई। यह विधा उपन्यास थी। इसके पूर्व की साहित्यिक विधाओं–काव्य, नाटक, आख्यायिका आदि के रूपाकार काव्य रूढ़ियों से बंधे होने के कारण नए विषयों के अनुरूप नहीं थे।
इन रूपाकारों में जीवन की विविधताओं को उनकी समग्रता में आकलित नहीं किया जा सकता। बहुआयामी जीवन को बाँधने के लिए ऐसी विधा की जरूरत थी जो स्वयं बहुआयामी हो। अर्थात् जिसमें काव्य, नाटक, आख्यायिका आदि का अन््तर्भाव होने के साथ और भी कुछ हो। उसका अपना निजी छंद हो किन्तु वह स्वच्छन्द हो।
पूर्ववर्ती विधाएँ बहुत कुछ अभिजातीय रूपाकारों, परम्परामुक्त मूल्यों सार्वभीम सत्यों को अभिव्यक्त करती आई थीं। उनमें बैयक्तिक अनुभवों के प्रकाशन का अवकाश नहीं था | उपन्यास सामूहिक अनुभवों के स्थान पर वैयक्तिक अनुभवों को तरजीह देता है। व्यक्ति अपने सामयिक परिवेश में अनुभव प्राप्त करता है। उपन्यातों में वैयक्तिक अनुभव और परिवेश के विस्तृत चित्रण के लिए भूमि मिली।
फारेस्टर इस समसामयिकता को “लाइफ वाई टाइम’ का नाम देकर कहता है कि इस विशेषता के कारण ही उपन्यास अन्य साहित्यिक विधाओं से अलग हो जाता है। व्यापक अर्थ में सामयिकता और साहित्य का समन्वित रूप पहले पहल इस विधा में ही मिला। दूसरे शब्दों में जीवन के यथार्थ को चित्रित करने के लिए नई विधा आविष्कृत हुई।
हिन्दी उपन्यासों का प्रारम्भ जीवन के उपदेशमूलक यथार्थ चित्रण द्वारा होता है। पर अतिरंजनापूर्ण काल्पनिक जीवन के अययथार्थ रोमांस भी कम नहीं मिलते। इस प्रकार रोमांस-यथार्थ का अन्तर्विरोध इतिहास के भैरन्तर्य में ही पाया जाता है। रीतिकालीन प्रेम-कल्पनाओं से अभी पीछा नहीं छूट पाया धा।। क्रीड़ापरक प्रेम से उस समय के अनेक उपन्यास भरे पड़े हैं। उस समय सामन्त-सरदारों को चमत्कृत किया जाता था तो इस समय जनता के एक व्यापक तबके को तिलस्मों और ऐयारों द्वारा चमत्कृत किया जाने लगा। पर रोमांस, उपदेश के भीतर से ही आगे चलकर ययथार्थोन्मुख्ली उपन्यासों का विकास हुआ |
‘परीक्षागुरु’ (१८८२) जो हिन्दी का पहला उपन्यास स्वीकृत कर लिया गया है, मध्यवर्गीय जीवन से ही सम्बद्ध है। इसके पूर्व लिखे गए नारी शिक्षा विषयक ग्रन्थों को भी कुछ लोगों ने उपन्यास के खाते में डाल दिया है। ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ (१८७०), ‘वामाशिक्षक’ (१८७२), ‘भाग्यवती” (१८७७) ऐसी ही पुस्तकें हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की “एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जग बीती” में औपन्यासिकता की सम्भावनाएँ बताई जाती हैं। किन्तु सम्भावनाओं के आधार पर कोई निर्णय नहीं किया जा सकता |
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