आधुनिक हिंदी का इतिहास
फोर्ट विलियम कालेज की हिन्दी
फोर्ट विलियम कालेज के मुंशी लल्लूलाल (१७६३१८३५४ ई०) और सदल मिश्र ने क्रमशः ‘प्रेमसागर” और “नासिकेतोपाख्यान’ पाठ्यपुस्तकें लिखीं। लल्लूलाल आगरे के रहनेवाले थे। जीविका की खोज में वे सन् १७८६ ई० में मुर्शिदावाद पहुँचे और मुवारक उद्दौला के सम्पर्क में आए, थोड़े दिनों तक वे नागौर नरेश रामकृष्ण के आश्रय में भी रहे। राजा रामकृष्ण के कैद हो जाने पर वे कलकत्ते लौट आए। कलकत्ता में उन्होंने एक प्रेस खोला।
गिलक्राइस्ट के सम्पर्क में आने पर सन् १७०० में फोर्ट विलियम कालेज में वे गद्य लेखक के रूप में नियुक्त कर लिये गए। दो वर्ष बाद सन् १८०२ में थे भाखा-मुंशी के पद पर प्रतिष्ठित हुए। लल्लूलाल के नाम पर छोटी-यड़ी चौदह रचनाओं का उल्लेख मिलता है इनमें कुछ ऐसी रचनाएँ हैं जिनका अनुवाद उन्होंने दूसरे की सहायता से किया है अथवा दूसरों को सहायता पहुँचाई है।सिंहासन बत्तीसी (१८०१ ई०), बैतालपच्चीसी (१८०१ ई०), माधोनल (१८०१ ई०), और शकुन्तला (१८०१ ई०) ऐसी ही पुस्तकें हैं।
इन याऐं पुस्तकों को लिखने में लल्लूलाल की मांग पर कालेज ने उनके सहायतार्थ दो फारसीदां –मजहरअली खान बिला और काजिमअली जवाँ –को नियुक्त किया। उन्होंने स्वयं लिखा है– “उन्होंने दो शायर मेरे लिए तैनात किये, मजहरअली खान विला और काजिम अली जवाँ।
एक वरष में चार पोथी का तरजुमा ब्रजभाषा से रेखते की बोली में किया। सिंहासन बत्तीसी, वैताल पच्चीसी । शकुन्तला नाटक। औ माधोनल | –सिंहासन वत्तीसी सुन्दरदास की ब्रजभाषा रचना का, बैताल पदच्चीसी सुरत कवीश्वर की ब्रजभाषा रचना का, शकुन्तला नाटक नेवाड़ा की ब्रजभाषा रचना का और माधोनल मोतीराम की ब्रजभाषा रचना का अनुवाद है।”
उन्होंने स्वयं जो रचनाएँ अनूदित या संगृहीत की हैं वे निम्नलिखित हैं : १—राजनीति अथवा वार्तिक (राजनीति १८६०२ ई०) (हितोपदेश का ब्रजभाषा गधानुवाद), २–ओरिएंटल फेब्युलिस्ट का ब्रजभाषा गद्य में रूपान्तरण (१६०२), ३-:प्रेमसागर या नागरी दशम (१६०३-१८०६) (चतुर्भुज मिश्र के भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के ब्रजभाषानुवाद का खड़ीबोली में अनुवाद), ४–लतायफे-हिन्दी नक्लियात (१८१०) खड़ीबोली, ब्रजी और हिन्दुस्तानी की सौ लघु कथाओं (टेल्स) का संग्रह।
लल्लूलाल ने इनका संपादन-प्रकाशन किया था। ५–भाषा कायदा (१८११ ई०) (व्रजभाषा व्याकरण)। ६–सभा विलास (१८१४) (व्रजभाषा काव्य संग्रह)। ७–माधोविलास (१६१७) (व्रजभाषा में लिखा गया चंपू)। ८–लालचन्द्रिका (१८१८ (बिहारी सतसई की खड़ीयोली में टीका) ग्रियर्सन ने उनके ‘मसादिरे भाषा’ तथा तासी ने “विद्यादर्पण” पुस्तक का उल्लेख किया है।
खड़ीबोली गद्य की दृष्टि से उनकी पाँच पुस्तकें विचारणीय हैं–सिंहासन वत्तीसी, बैताल पश्चीसी, माधोनल, शकुन्तला और प्रेमसागर |
पहली चार पुस्तकों को लल्लूलाल ने रेख्ते की बोली कहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में उनकी भाषा उर्दू है। गारसताँ द तासी ने लल्लूलाल को उन पुस्तकों की रचना में केवल सहायक माना है।
माघोनल और शकुन्तला की भाषा उर्दू है। पर क्या सिंहासन बत्तीती और पश्चीसी के सम्बन्ध में भी यह सच है ? इन दोनों पुस्तकों को न तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थान मिलता है न उर्दू साहित्य के। इससे इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि इनकी भाषा में बोलचाल के शब्द हैं। बैताल पच्चीसी की भूमिका इसकी भाषा को उर्दू भाषा घोषित करती है पर वह हिन्दी के अधिक निकट है-
“ये बातें करते थे कि इतने में साँझ हुई। उसे अच्छा भोजन दिया, और उसने व्यालू किया। मसल मशहूर है कि भोग आठ प्रकार का है, एक सुगन्ध है दूसरे बनिता, तीसरे वस्त, चौथे गीत, पाँचवें पान, छठे भोजन, सातवें सेज, आठवें आभूषण–ये सब वहाँ मीजूद थे।
गरज जब पहररात आई, उसने रंगमहल में जा उसके सारी रात आनन्द से काटी जब भोर हुई, वह अपने घर गयाऔर वह उठके अपनी सखियों के पास आई–” बैताल पद्चीसी–अट्ठारहवीं कहानी |
सन् १८६६ ई० में सिंहासन बत्तीसी की भूमिका में उसके सम्पादक सैयद अब्दुल्ला ने इसकी भाषा के सम्बन्ध में लिखा है–” जिस भाषा में सिंहासन यत्तीसी लिखी गयी है वह हिन्दी, हिन्दुस्तानी, संस्कृत, फारसी और अरबी मिश्रित भाषा है, पर प्रधानता हिन्दी तत्व की है।
” इसमें वैसे अरबी-फारसी शब्द प्रयुक्त हुए हैं जो सामान्य व्यवहार में प्रथलित हैं और वस्तुतः घरेलू शब्द बन चुके हैं। हिन्दी इसके अतिरिक्त और कया है ? सिंहासन बत्तीसी की भाषा का नमूना देखिए :–
“तीनों लोक में हंगामा मधा कि राजा बीर विक्रमाजीत का काल हुआ उस वक्त आगिया कोयला दोनों वीर भी साथ राजा ही के लोप हो गये न वह स्वामी रहा न वे दास रहे–संसार में से धर्म की धजा उखड़ गई सब रएयत राजा के राज की रोने लगी–विराहमन भाट भिखारी रांड दुखी सब धाय मार-मार रो-रो कहने लगे कि हमारा आदर करने वाला और मान रखने हारा आज जग से उठ गया रानियाँ राजा के साथ सती हुईं और जितने
दास-दासी थे सब अनाथ हो गए-“
हिन्दी गद्य के विकास के सन्दर्भ में लल्लूलाल के प्रेमसागर की विशेष चर्चा होती है। यह हिन्दुस्तानी प्रेस कलकत्ता से अंशतः १८०३-५४ ई० में और पूर्णतः १८२६ ई० में प्रकाशित हुआ।
इसकी रचना का उद्देश्य हिन्दवी (खड़ीवोली) से परिचित कराना था। लल्लूलाल ने इसमें यामिनी भाषा को छोड़ने का प्रयास किया है यद्यपि यामिनी भाषा ने उन्हें पूर्णतः नहीं छोड़ा है।
खड़ीबोली गद्य की दृष्टि से प्रेमसागर का कोई खास महत्व नहीं है। इसका ब्रजभाषा रंजित वृत्तगन्धी गद्च न इंशा की खड़ीबोली की तरह साफ सुथरा है और न बैताल पद्चीसी और सिंहासन बत्तीसी की तरह खरा। आचार्य शुक्ल ने उसके गद्य को कथावार्ता के काम का कहा है। उसकी भाषा का नमूना देखिए—
“इस बात के सुनते ही श्रीकृष्ण जी ने हँसते-हँसते सत्नजीत से कहा कि यह मनि राजा जी को दो और संसार में जस बड़ाई लो।
देने का नाम सुनते ही वह प्रनाम कर धुपधाप वहाँ से उठ सोच-विचार करता अपने भाई के पास जा बोला कि आज श्रीकृष्ण जी ने मनि माँगी और मैंने न दी।
इतनी बात जो सत्रजीत के मुँह से निकली तो क्रोध कर उसके भाई प्रेसेव ने वह मनि ले अपने गले में डाली और शख लगाम घोड़े पर चढ़ अहेर को निकला महाबन में जाय धनुष चढ़ाय लगा साबर, चीतल, पाढ़े, रीछ और मृग मारने।
इसमें एक हिरन जो उसके आगे से झपटा तो इसने भी छिजलायके विसके पीछे घोड़ा दपटा और चला चला अकेला कहाँ पहुँचा कि जहाँ जुगान जुग की एक बड़ी ओंडी गुफा थी।’
स्पष्ट है कि प्रेमसागर केवल ब्रजभाषा रंजित ही नहीं है। इसमें शब्द रूपों की अनिश्चितता भी दिखाई देती है। शैली पर पंडिताऊपन की गहरी छाप है। मुहावरों का वैसा प्रयोग नहीं हुआ है जैसा बैताल पश्नीसी और सिंहासन बत्तीसी में दिखाई पड़ता है। सच तो यह है कि उन्हें न संस्कृत का ज्ञान था न ब्रजभाषा का।
इसलिए न तो वे मूल ग्रन्थों का मर्म समझ सके थे और न अनुवादों की भाषा को ही औचित्यपूर्ण ढंग से प्रयुक्त कर सके।
फोर्ट बिलियम कालेज के दूसरे भाखा-मुंशी सदल मिश्र (जन्म अनुमानतः १७६६, मृत्यु १८४८ ई०) शाहायाद जिले के घुवडीहा गाँव के निवासी थे। उक्त कालेज के तत्त्वावधान में सन् १८०३ में उन्होंने ‘चन्द्रावती अथवा नासिकेतोपाछ्यान’ को संस्कृत से खड़ीवोली में अनूदित किया।
१८०६ में उन्होंने अध्यात्म रामायण का “रामधरित अथवा अध्यात रामायण’ नाम से अनुवाद किया। ये दोनों ग्रन्थ सदल मिश्र-ग्रन्थावली के रूप में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना से प्रकाशित हो चुके हैं।
नासिकेतोपाख्यान को वह प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हुई है जो प्रेमसागर को मिली। कालेज के पाठ्यक्रम में उसे नहीं रखा गया। इसका कारण कदाचित् यह था कि इसकी भाषा हिन्दुस्तानी के मेल में नहीं थी। सदल मिश्र ने नासिकेतोपाख्यान का सीधे संस्कृत से अनुवाद किया था।
इसलिए स्वाभाविक था कि उसकी भाषा में संस्कृत की प्रचुर शब्दावली मिलती | संस्कृत के वाक्य विन्यासों का प्रभाव भी इसकी भाषा पर पड़ा है–लम्बे वाक्यों से घिरे हुए वर्णन, पूर्वकालिक क्रियाओं की बहुलता आदि।
नासिकेतोपाख्यान की भाषा पर ब्रजी और भोजपुरी दोनों का रंग है। ‘कौदती गाछ’, ‘बतकही” आदि पूर्वी के शब्द तथा कैसेहू’, ‘जाननिहार” आदि पूर्वी के रूप भी उसमें मिलते हैं।
ब्रजी के रूप जैसे ‘चितोने लगे”, ‘सहस्नन: ‘किसू’ आदि भी उसमें मौजूद हैं। लिंग दोष भी मिलता है–मुंगेरों के मार से’, ‘सारे पृथ्वी का पति” आदि । कहीं-कहीं वाक्य अशक्त और लद्दड़ हैं-““-‘पहले मास में तो उस कन्या को कुछ अधिक सा देह में रूप उपजा | ‘
इन त्रुटियों के बावजूद सदल मिश्र की भाषा हिन्दी की अपनी प्रकृति के मेल में है–
“एक दिन एक समय राजा जनमेजय गंगा के तीर पर बारह वरस यज्ञ करने को रहे। एक दिन ख्रान-पूजा करे ब्राह्मणों को बहुत-सा दान दे देवता पितरों को तृप्त करके ऋषि और पंडितों को साथ लिए वैशम्पायन मुनि पास जा दण्डवत् कर खड़े हो हाथ जोड़ कहने लगे कि महाराज आप वेद-पुराण सब शासत्र के सार जाननिहार तिसपर व्यास मुनि के शिष्य सब योगियों में इन्द्र समान हो। ऐसी कथा कि जिसके सुनने से पाप कटे और कोई रोग न होय नर जन्म संसार में अच्छा भोग अन्त में मुक्ति मिले हमसे कहिए ॥’
हिन्दी गद्य के प्रथम चार आचायों–सदासुखराय, इन्शाअल्ला, लल्लूलाल और सदल मिश्र के गद्य के महत्य के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। श्यामसुन्दरदास के मतानुसार पहला स्थान इंशाअल्ला खाँ, दूसरा सदल मिश्र और तीसरा लल्लूलाल को मिलना चाहिए।
आचार्य शुक्ल का कहना है ‘गद्य की एक साथ परम्परा चलाने वाले उपर्युक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिन्दी का पूरा-पूरा आभास मुंशी सदासुख और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है।
इन दो में भी मुन्शी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्त्व की है।’ मैंने पहले ही संकेतित किया है कि शुक्ल जी ने सदासुखराय के सम्बन्ध में जो निर्णय लिया है उसका आधार अप्रामाणिक है। इंशा की शब्दावली ठेठ हिन्दी की है किन्तु उसका दाँचा हिन्दी की प्रवृत्ति के बहुत अनुकूल नहीं पड़ता ।
‘रानी केतकी की कहानी” हिन्दू-उर्दू शैली है उस पर दरवारी शैली की गहरी छाप है। परवर्ती हिन्दी ने उनकी भाषा को तो ग्रहण किया किन्तु उनकी शैली को नहीं। सदल मिश्र की भाषा-पीली में हिन्दी की अपनी प्रकृति है। यदि उसमें अरबी-फारसी के शब्दों को रखा जाय तो भी उसे हिन्दी ही कहेंगे।
लल्लूलाल की प्रेमसागरी हिन्दी का हिन्दी गद्य के निर्माण में उल्लेख्य योग नहीं है। बल्कि बैताल पद्चीसी और सिंहासन वत्तीसी की भाषा का ढाँचा हिन्दी का है। केबल अरबी फारसी के शब्दों के कारण उसे हिन्दुस्तानी मानने का कोई तुक नहीं है।
हिन्दी गद्य के विकास में अपने-अपने ढंग से सभी का योग है। पर सदल मिश्र का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक हैं। ‘सुरासुर निर्णय” के आधार पर सदासुखराय का महत्त्व निर्विवाद है। अतः महत्त्व की दृष्टि से इनका क्रम होगा–सदासुखराय, सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ और लल्लूलाल।
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