श्रीधर पाठक
पं० श्रीधर पाठक का जन्म 11 जनवरी सन् 1860 को आगरा जिले के जोंधरी ग्राम में हुआ । जाति के ये सारस्वत ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम पं० लीलाधर और पितामह का धरणीथर शास्त्री था । इनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई । हिंदी प्रवेशिका करने के उपरांत सन् 1880 में एंट्रेस की परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की ।
1881 में, थे । सेंसस (जनगणना) कमिश्नर के कार्यालय में, 60 मासिक पर, कलकत्ते में नौकर हुए । इसके उपरांत इनकी नियुक्ति गवर्नर के कार्यालय में इलाहाबाद में हुई । सन् 1901 में उन्नति करते-करते ये 300) मासिक पर सिंचाई-कमीशन के सुपरिन््टेन्डेंट हो गए । अंत में ये युक्त-प्रांत (उत्तर प्रदेश) के गवर्नर के कार्यालय में सुपरिन््टेंन्डेंट होकर आए और यहीं से रिटायर हुए ।
पेंशन लेने के उपरांत इन्होंने अपने निवास प्रयाग के लूकरगंज मोहल्ले में एक बंगला बनवाया । पाठक जी प्रकृति के बड़े प्रेमी थे। वे कई बार शिमला, नैनीताल, देहरादून और काश्मीर हो आए थे । इन यात्राओं का उनके काव्य पर गहरा प्रभाव पड़ा हैं । संस्कृत और अँग्रेजी दोनों पर इनका अच्छा अधिकार था।
अंग्रेजी से इन्होंने गोल्डस्मिथ (सन् 1728-74) के तीन काव्यग्रंथों का अनुवाद एकांतवासी योगी (106 प्रदाएं।) श्रांत पथिक (10८ पाब्श्थाथ) और ऊबड़ ग्राम (10० एऐचल०० भं॥०४८) नाम से किया । इनमें से पहली दो कृतियाँ खड़ी बोली में और तीसरी म्रज भाषा में हैं खड़ी बोली के साथ पाठक जी ब्रजभाषा में भी कविता करते थे ।
बाद में उनका झुकाव खड़ी बोली की ओर हो गया और इसी से उनकी गणना खड़ी बोली के आदि कवियों में होती है । खड़ी बोली के प्रति इस प्रेम के कारण ही प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत को अपने प्रारभिंक काव्य-काल में इनसे बड़ा स्नेह और प्रोत्साहन मिला ।
प॑० श्रीधर पाठक को वृद्धावस्था में दमे का रोग हो गया था। सन् 1928 में उनका देहांत हो गया। अपने पीछे इन्होंने दो पुत्र और एक कन्या को छोड़ा | इनकी पुत्री सुश्री ललिता पाठक प्रयाग विश्वविद्यालय में लेक्चरर हैं ।
इनके मौलिक और अनुदित ग्रन्थों में से निम्नलिखित प्रसिद्ध हैं-
- भारत-गीत,
- गोपिका-गीत,
- मनोविनोद,
- जगत सचाई सार,
- काश्मीर सुषमा,
- एकांतवासी योगी,
- श्रांत पथिक और
- ऊबड़ ग्राम ।
पाठक जी प्रकृति के अनन्य उपासक थे । इसका प्रमाण है उनकी ‘काश्मीर, सुषमा’ शीर्षक रचना। इसमें प्रकृति की कल्पना नारी रूप में कर ठसे सजीवता प्रदान की गयी हैं नारी के समान प्रकृति भी यौवन-मद से मत है । थंगार करने में रुचि प्रदर्शित करती है और दर्पण में अपना प्रतिबिंब निहार कर अपने पर हीमोहित हो जाती है-
प्रकृति यहाँ. एकांत। बैठि निजण रूपए सँवारति ।
एल-पल पलटति छनकि छवि छिन-छिन धारति ॥
बिमल अंबु-सर-मुकुृर महाँ मुख-बिंब निहारति ।
अपनी छबि ऐप मोहि आप ही वन-मन बारति ॥
बिहरति विक्व्ध विलास भरी जोबन के मंद सनि।
ललकति, किलकति, पुलकति, निरखति, थिरकति बनि ठनि ॥
हिमालय की रम्यता का वर्णन करते समय तो जैसे कल्पना की पंख पर पंखुड़ियाँ खुलती चली जाती हैं। उत्प्रेश्ाओं के रूप में ये कल्पनाएँ और सुरुचिमयी भी है और अनगढ़ ढंग की भी ।
हिमालय को जहाँ इन्होंने प्रकृति की रंगशाला, श्री-शोभा के मंडल और सहस्नदलकमल के समान बतलाया है, वहाँ इन्हें वह पिटरी, संदूक, थैली, थाली, घोड़े के खुर की छाप और अवधूत के कमंडल जैसा भी दिखाई दिया है इससे कल्पना की उर्वरता चाहे सिद्ध हो, पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इनका सौंदर्य-बोध सभी कहीं बहुत परिष्कृत ढंग का नहीं हैं कुछ भी हो, काश्मीर-दर्शन से कवि अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करता है ।
वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत होकर वह यहाँ तक कह बैठता है-
सुरपुर अरु काश्मीर दोठन में को है सुंदर?
को स्रोभा कौ भौन, रूप कौ कौन समुंदर?
कार उपमा उचित दैन दोउत में काकी
सुरपुर की अथवा सुरपुर याकी
याकाँ उपमा या ही की मोहि देत सुहाव॑ ।
या सम दूजो गैर सृष्टि में दृष्टि न आवबै ॥
यही स्वर्ग घुरलोक, यही सुर-कानन सुंदर ।
यहि अमरन को ओक, यही कहूँ बसत पूरंदर
एक वर्ष श्रावण-भादों में वर्षा नहीं होती । उस अवसर पर ग्रीष्म के भयंकर ताप से त्राण पाने के लिए जलधर से जो इन्होंने विनय की है, वह बड़ी मार्मिक है। इस विनय के पीछे जीवन में आनंदोल्लास के साथ लोक-कल्याण की भावना भी निहित है-
कहुँ-कहुँ कृपहु सूले, हरे-हरे, हुरि गये सूल।
एक तुम्हे भये रूखे, हमहें सबहि भए रूख ॥
हे धन, अबहूँ न चितयहु, इत बहु विप्ति निहारि ।
हुम युख्ध दिन कित कतिबहु, हम कहाँ दुख में डारि?
है जग-जीय जुड़ावन,, भीय छुड़ावनहार ।
हे क्क-तीय उड़ावन, हीय बढ़ावन हार ॥
पोरु पमड़ि धपमंकहु, थेरहु दसहु दिसान ।
दामिनि द्रतहि दमंकहु, धारहु धनुस निसान ॥
कयजरी मथुर मलारन की धुनि पृत्रि छुनवाठ।
मंगल मग्रोद मगावात की चरचा चलवाठ ॥
पुनि-पुनि फ्िय-पिय बोलन, प्रपियन प्यास बुलझ्ाउ ।
करी कृत्कृत्य किसानन, संकत्सर सरसाउ ॥
आांध्य अटन’ में प्रकृति के विनाशकारी रूप को चित्रित किया गया है।
चाँदनी रात में कवि चंद्रमा को ठदित होते देख प्रसन्नता का अनुभव कर ही रहा है कि आकाश के एक कोने में उसे गोल चक्कर काटता कोई हिंसक पश्ी दिखाई देता हैं वह मालती लता से वेष्टित आग्र की डाल पर बैठे निरीह पक्षियों पर आक्रमण कर दिव्य छवि को मलिन कर डालता है |
हिंदी कवियों से जहाँ तक बन पड़ा है, पाठकों के इृदय को श्रुब्ध करने वाले दृश्य उन्होंने कम ही अंकित किए हैं । पर यथार्थ की भूमि में वीभत्स का भी अपना महत्व है |
कुछ पंक्तियाँ लीजिए-
कास उसी वृक्ष के सीस की ओर कुछ
खड़खड़ाका एक शब्द-सा सुनि पढ़ा
साथ ही पंख की फड़फ़ड़हट, तथा
शत्रु निशंक की कड़कड़ाहट, तथा
पतियों में पड़ी हड़हड़ाइट, त्षा
आर्ति-युव कातर- स्वर, तथा शीघ्रता-
युत उड्ाहट परा दृश्य इस दिव्य छवि-
लुग्ध दृग बुग्म को छथित अति दिख पड़ा ।
“जगत सचाई सार’ में इन्होंने प्रकृति के विविध रूपों में एक तत्व की व्याफकता के दर्शन किए हैं और “सु-संदेश’ में तो इन्होंने रहस्यवाद के क्षेत्र में भी पदार्पण किया है । इस पिछली रचना में इन्होंने उस अदृश्य शक्ति की कल्पना एक गायिका के रूप में की है और ऐसा संकेत किया है कि समस्त सृष्टि में उसी के छेड़े स्वरों का संगीत जैसे परिव्याप्त है-
कहीं में स्वर्गीय कोई बाला सुमंजु वीणा बजा रही हैँ
मुरों के संगीत की सी कैसी सुरीली गुंजार आ रही है ।
कभी नयी तान प्रेममय है, कभी प्रकोपन, कभी विनय है ।
दया है, दाक्षिणय का उदय है अनेकों बानक बना रही है ॥
भरे गयन में हैं जितने तारे, हुए हैं मदमस्त गत पै सारे ।
समस्त ब्रह्मांड पर को मानो, दो उंगलियों पर नचा रही है ।
देश-प्रेम से संबंधित इनकी रचनाएं “भारत गीत” में संकलित हैं। अपने विचारों में ये बड़े प्रगतिशील थे । इनकी मान्यताओं में से प्रमुख यह है कि मनुष्य को उसके अधिकार मिलने चाहिए । जहाँ प्राणियों को अपने मोलिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है, उस देश को ये प्रेतों का देश समझते हैं ।
देशानुराग को ये व्यक्ति का सबसे उज्जवल गुण मानते हैं और परतंत्रता को उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य । विदेशी प्रभुओं को लेकर अभिमान करने वाले व्यक्तियों को इन्होंने हेय दृष्टि से देखा है। नवयुवकों से ये ऐसी आशा करते रहे कि वे आया के गौरव की रक्षा कर भारतवर्ष की कीर्ति का विस्तार करेंगे ।
देश के प्रति इनके हृदय का प्रेम हिंदी बंदना’ शीर्षक रचना से सिद्ध होता है। इसमें भारत के नगर-प्राम, वन- उपवन, सरिता-सरोवर, मैदान-पहाड़ों को दृष्टिपथ में लाते हुए परतंत्रता के दिनों में भी उसकी आत्मा की स्वतंत्रत्म की घोषणा इन्होंने की है।
पाठक जी ने अपने सं से यह सिद्ध कर दिखाया कि सरकारी कर्मचारी भी पूरा देश-भक्त हो सकता है ।
जय नगर आम अगभिराम हिंद ।
जय जगती जगती सुखधाम हिन्द
जय सरसिज-मधुकर-निकर हिंद ।
जय जयति हिमालय-शिखर हिंद ॥
जय जयति विंध्य-कंदरा हिंद ।
जय मलव-मेह-मंदग हिंद ॥
जय शैल-सुत युरसरी हिंद ।
जय यमुना-गोदावरी हिंद ॥
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद ।
जय जयति-जयति प्राचीन हिंद ॥
गोल्डस्मिथ के काव्य-ग्रंथों के पद्च-बद्ध अनुवाद द्वारा हिंदी में इन्होंने एक नयी काव्य-चेतना का समारंभ किया | ‘एकांतवासी योगी’ का अनुवाद तो इन्होंने सन् 1886 में ही प्रस्तुत किया था । इसमें मुक्त प्रकृति के बीच स्वच्छंद प्रेम की कहानी कही गयी है ।
जहाँ तक बन पड़ा है कवि ने मूल कृति की स्वच्छ, सरल, पारदर्शी शैली की रक्षा की है, पर इस अनुवाद अपनी सीमाएं भी स्पष्ट हैं । ग्रंथ की रचना लावनी में हुई है, पर छंद में की मात्राओं का ज्ञान सभी कहीं नहीं प्रदर्शित होता । भाषा बोधगम्य अवश्य है, पर वह आज की सी परिमार्जित और साहित्यिक नहीं है |
स्थान-स्थान पर ठसमें ऐसे प्रयोग पाये जाते है जैसे आलिंग, लोभा, नदि, नहि, इनने नवाय दरसाय, होय खोय, वारे था, बितावै था, दुँढूँहू, खोजे है, सन लीजे, कर दीजे आदि । “एकांतवासी योगी” का यह अंश देखिए-
उसी भाँति सांसारिक मैत्री केवल एक कहानी है,
नाम मात्र से अधिक आज तक नहीं किसी ने जानी है ।
अपना स्वार्थ सिद्ध करने को जगत मित्र बन जाता है
किंद काम पढ़ने पर को की काम जहें आता है
-पंथ में पड़कर, मन को पहुँचाता ,
तो ही निपट अजान, अज्ञ, निज जीवन का गवाता है ।
कुत्सित कुटिल क्रूर प्रथ्वी पर कहाँ प्रेम का वास?
अरे मूर्ख आकाश पृष्पवत्ू, टूटी इसकी आस ।
श्रीधर पाठक खड़ी बोली के प्रारंभिक कवियों में से हैं, अतः उनके कृतित्व को बहुत कठोर दृष्टि से नहीं देखा जा सकता । प्रेम, प्रकृति और देश-भक्ति के अतरिक्त समाज-सुधार की भावनाओं से इनकी रचनाएँ ओतप्रोत है । स्वच्छंदतावाद (ए०गाशभाएंटंआ) के प्रर्वतक के रूप में पाठक जी को प्रायः स्मरण किया जाता है |
छायावादी कवियों से भी पहले ये प्रकृति को आलंबन के रूप में स्वीकार करने वाले कवि हैं । मुक्त प्रकृति में स्वच्छंद प्रेम की क्रीड़ा का संकेत भी इस युग के कवियों को संभव है, इन्हीं से मिला हो । यह असंभव-सा नहीं लगता कि प्रसाद’ का ‘प्रेम-पचिक’, रामनरेश त्रिपाठी का ‘मिलन’ और पंत जी की “ग्रंथ आदि रचनाएँ श्रीधर पाठक के ‘एकांतवासी योगी’ की ‘स्प्रिट’ से प्रभावित रही हों
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