आधुनिक हिंदी का इतिहास
बदलाव की स्थिति
कोई भी बदलाव यों ही नहीं आता, बल्कि उसके कुछ कारण होते हैं। दो संस्कृतियों का अन्तरावलंबन परिवर्तन के लिए उतना कारगर नहीं होता जितना समाज के बुनियादी ढाँचे को बदलने वाले आर्थिक कारण। मुख्य कारण आर्थिक ही होता है; सांस्कृतिक गौण। यह बात दूसरी है कि कभी सांस्कृतिक कारण भी प्रधान हो उठता है। पर इन दोनों को ले आने का दायित्व जाने-अनजाने अंग्रेजों को ही है। अत: आधुनिक काल की परिवर्तमान प्रक्रिया को समझने के लिए उन समस्त कारणों का विवेचन आवश्यक है जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद ‘के फलस्वरूप प्रादुर्भूत हुए।
राजनीतिक स्थिति
सन् 1857 से हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल शुरू हो जाता है पर भारतवर्ष के आधुनिक बनने की प्रक्रिया की शुरुआत एक शताब्दी पूर्व उसी समय से (सन् 1757 ई०) हो जाती है जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नवाब सिराजुद्दोला को प्लासी की लड़ाई में हराया था। सिराजुद्दोला की हार के बाद संपूर्ण बंगाल पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 1764 में बक्सर की लड़ाई में मुगल सम्राट शाह आलम भी पराजित हुआ, सन् 1764 में कड़ा के युद्ध में उसकी रही सही शक्ति भी समाप्त हो गई। सम्राट ने अब बंगाल, विहार और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को बखस दी। सम्पूर्ण देश पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए अंग्रेजों को दो और शक्तियों को पराजित करना शेष था–वे शक्तियों थीं मराठे और सिक्ख।
सिक्ख तो पंजाब की सीमा में थे। परन्तु मराठों का प्रभाव बहुत व्यापक था। पारस्परिक फूट और संघर्ष के कारण असी (१८०३) और लासवारी (१८०३) के युद्ध में मराठे विजित हो गए और उनकी संघ शक्ति समाप्त हो गई। १८४६ में सिक्खों को पराजित करने के बाद संपूर्ण देश अंग्रेजों के अधीन हो गया। १६८९६ में अवध भी अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। अपनी इस विजय के कारण अंग्रेजों का मदोन्मत्त हो जाना स्वाभाविक था। उनकी नीतियों से असंतुष्ट देशी राजाओं, सिपाहियों, किसानों ने एक जुट होकर १८५७ ई० में व्यापक स्तर पर विद्रोह किया।
सन् 1857 के संघर्ष के फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त कर दी गई और भारतवर्ष ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश बन गया। अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक, तथा प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया। इस देश के लोग भी नए संदर्भ में कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्य हुए।
साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दुःख के साथ पहली बार जुड़ा। यह भारतेन्दु के समय में हुआ–वह भी गद्य के माध्यम से। आधुनिक जीवन-चेतना की चिनगारियाँ गद्य में दिखाई पडी, पद्य में नहीं। नया युग अपनी अभिव्यक्ति के लिए नई भाषा की खोज कर रहा था। ब्रजभाषा इसके लिए उपयुक्त नहीं थीं। इसलिए आधुनिक काल में ब्रजभाषा काव्य के माध्यम से पुरानी संवेदनाएँ ही अभिव्यक्ति पाती रहीं। वह अपने संस्कारों में जड़ हो चुकी थी। उसके लिए पुरातनता का केंचुल छोड़ पाना संभव नहीं था। खड़ी बोली का गद्य आधुनिक चेतना के फलस्वरूप ही अभिव्यक्ति का नया माध्यम बना।
नया आर्थिक ढाँचा : नए सम्बन्ध
साहित्य का इतिहास बदलती हुई अभिरुचियों और संवेदनाओं का इतिहास है। अभिरुचियों और संवेदनाओं के बदलाव का सीधा सम्बन्ध आर्थिक और चिन्तनातमक परिवर्तन से है। कुछ लोगों की दृष्टि में आर्थिक परिवर्तनों के साथ साहित्यिक परिवर्तनों का तालमेल बैठा देना ही साहित्य का इतिहास होता है। कुछ लोग संस्कृति के धरातल पर ही अभिरुचियों का विकास-क्रम निर्धारित करते हैं। वस्तुतः आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों में पेचीदा सम्बन्ध है। स्थूल रूप से दोनों में कारण-कार्य का सम्बन्ध स्थापित करके सरलीकरण नहीं किया जा सकता, अतः साहित्येतिहास के सन्दर्भ में दोनों के सम्बन्धों और देन का विवेचन अतिरिक्त अवधानता की अपेक्षा रखता है।
आधुनिक काल के पूर्व भारतीय गाँवों का आर्थिक ढाँचा प्रायः अपरिवर्तनशील और स्थिर रहा है। गाँव अपने आप में स्वतः पूर्ण आर्थिक इकाई थे। इनकी अपरिक्तनशीलता को लक्ष्य करते हुए सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा है–“ गांव छोटे-छोटे गणतन्त्र थे। उनकी अपनी आवश्यकताएँ गाँव में ही पूरी हो जाती थीं। बाहरी दुनिया से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। एक के बाद दूसरा राजवंश आया, एक के बाद दूसरा उलटफेर हुआ; हिन्दू, पठान, मुगल, सिक्ख, मराठों के राज्य बने और बिगड़े पर गॉव वैसे के बैसे ही बने रहे। “
गाँव की जमीन पर सबका समान अधिकार था। किसान खेती करता था। लुहार, बढ़ई, कुम्हार, नाई, धोयी, गींड, तेली आदि गाँव की अन्य आवश्यकताएँ पूरी करते थे। पेशा जाति के अनुसार निश्चित होता था। एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति का पेशा नहीं करता था क्योंकि इसके लिए वह स्वतन्त्र नहीं था।
नगर और गाँव अपनी-अपनी इकाइयों में पूर्ण और एक दूसरे से असंबधद थे । नगर तीन तरह के थे, राजनीतिक महत्त्व के नगर, धार्मिक नगर और व्यापारिक नगर। नगरों में मूल्यवान वस्तुओं का निर्माण होता था। रलजटित आभूषणों, बारीक सूती-रेशमी वस्तरों, हाथीदांत की मीनाकारी, वसत्रों की रँगाई आदि के लिए इस देश की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति थी। पर इन वस्तुओं की खपत धनी वर्ग में होती थी, विशेष रूप से राजाओं-महाराजाओं, सामंतों, श्रेष्ठियों आदि में। नगरों का उद्योग सामान्य वस्तुओं का निर्माण नहीं करता था। गाँव का घरेलू उद्योग अलग था और नगरों का अलग। दोनों की अलग-अलग इकाइयां थीं। अंग्रेज व्यापारियों ने इस देश को अपना बाजार बनाने के लिए यहाँ के बारीक धंधों को बहुत कुछ नष्ट कर दिया। जो कुछ बाकी बचे थे वे नई सामाजिक व्यवस्था के कारण नष्ट हो गए।
अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ-साथ इस देश की सामाजिक संघटना में विघटन और परिवर्तन आरंभ हो जाता है। यों अंग्रेजों की विजय की जिम्मेदारी यहाँ की स्थिर आर्थिक व्यवस्था पर ही नहीं है। अनेक जातियों-उपजातियों में विभक्त देश में पारस्परिक एकता का सर्वधा अभाव रहा है। विदेशी मुसलमानों की विजय का कारण भी यही था और अंग्रेजों की विजय का भी। आज भी जब एक सीमा तक देश का आधुनिकीकरण हो गया है जाति के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं, नियुक्तियाँ होती हैं। पुरातन आर्थिक व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने पर भी जाति प्रथा शिधिल तो हुई पर मिट नहीं सकी | आधुनिक साहित्य में भी इस प्रथा पर करारी चोट की गई पर वह कितावी बन कर रह गई। आर्थिक ढाँचे के परिवर्तन के साथ अधिरचना के ढाॉचे को भी अन्य स्तर पर मूलतः बदलने की ज़रूरत बनी हुई है।
जो आर्थिक परिवर्तन अंग्रेजों द्वारा ले आया गया वह मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा संभव नहीं था। इनके आगमन से सामाजिक रीति-नीतियों में कहीं संकाेच और कहीं विस्तार दिखाई पड़ा। मुसलमान यायावर थे और सामाजिक विकास की दृष्टि से वे पिछड़े हुए थे। उनकी स्थिति पूर्व-सामंतीय थी। इसलिए वे विजयी होकर भी यहाँ की उद्यतर सभ्यता से अंशतः विजित हो गए। मुगलों के जमाने में आर्थिक-सामाजिक ढाँथे में स्थिरता आई किन्तु वे भी समाज के ढोंचे में कोई बुनियादी फर्क नहीं ले आ सके। आर्थिक इकाइयों में यधास्थिति बनी रही। अंग्रेज सामंतीय व्यवस्था से आगे बढ़कर पूँजीवादी व्यवस्था अपना चुके थे। सामाजिक विकास की दृष्टि से वे यहाँ के लोगों से एक मंजिल आगे थे। इसलिए आर्थिक व्यवस्था को तोड़ने और परिवर्तन करने में उन्हें सफलता प्राप्त हुई।
अंग्रेजों ने गॉव की आर्थिक व्यवस्था में जो रद्दोबदल किया उसे उनकी कृपा नहीं कहा जा सकता। इसमें उनका अपना स्वार्थ निहित था। गाँव की जमीन का बन्दोवस्त करने के कारण उन्हें थोड़े लोगों से ही मालगुजारी मिल जाती थी। जमींदारों और बड़े-बड़े जोतदारों का एक ऐसा तबका खड़ा हुआ जो अंग्रेजों की आखिरी विदाई के समय तक उनकी सहायता करता रहा। अंग्रेजों ने इस देश को लूटा, इसका व्यापार नष्ट किया। भारतेन्दु ने “कवि-बचन-सुधा’ (माच१८७४) में लिखा है–
” सरकारी पक्ष का कहना है कि हिन्दुस्तान में पहले सब लोग लड़ते-भिड़ते थे और आपस में गमनागमन न हो सकता था, यह सब सरकार की कृपा से हुआ। हिन्दुस्तानियों का कहना है कि उद्योग और व्यापार बाकी न रहा | रैल आदि से भी द्रव्य के बढ़ने की आशा नहीं है। रेलवे कम्पनीवालों ने जो द्रव्य व्यय किया है उसका व्याज सरकार को देना पड़ता है और लेने वाले बहुधा बिलायत के लोग हैं। कुल मिलाकर २६ करोड़ रुपया बाहर जाता है। ”
लार्ड कार्नवालिस ने सन् 1793 में बंगाल, विहार और उड़ीसा में जमींदारी प्रथा लागू की। बाद में बमबई, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में भी यही व्यवस्था जारी की गई। सन् १८२० में सर टामस मुनरों ने इस्तमरारी बन्दोवस्त लागू करके जमीन को व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में बदल दिया। जमींदार और जोतदार दोनों ही जमीन का क्रय-विक्रय कर सकते थे। इसके पहले जमीन को न खरीदा जा सकता था और न बेचा जा सकता था क्योंकि उस पर व्यक्ति का स्वामित्व नहीं था। खेत के व्यक्तिगत संपत्ति हो जाने पर खेती का व्यावसायिक हो जाना स्वाभाविक था .
पहले कृषि का उत्पादन गाँव में ही रह जात! था किन्तु अब बाजारों में जाने लगा। यातायात की सुविधा बढ़ने पर उत्पादन की किस्म पर भी प्रभाव पड़ा। खेतों में उन वस्तुओं का उत्पादन अधिक किया जाने लगा जो व्यवसाय की दृष्टि से अधिक लाभप्रद थीं। रुपये के चलन से भी व्यावसायिकता में अभिवृद्धि हुई पर किसानों की स्थिति अच्छी नहीं हो सकी। उन्हें एक ओर सरकारी मालगुजारी अदा करने की परेशानी रहती थी दूसरी ओर महाजन की ऋण-अदायगी की। वह बेचारे इन दो पाटों के वीच पिस रहा था।
समय-समय पर अंग्रेज मालगुजारी की दर बढ़ा दिया करते थे। फलस्वरूप किसान महाजनों के चंगुल में बुरी तरह फँस जाता था। महाजनी सभ्यता का जाल फैलाने का श्रेय अंग्रेजों को ही है। आए दिन अकाल भी पड़ते रहते थे। अकाल-पीड़ितों की रक्षा करने में अंग्रेज अधिकार असमर्थ थे। अकाल की ज्वाला में हजारों लोग भस्मीभूत हो जाया करते थे। कर के भारी बोझ और अकाल-महामारी आदि की भयंकरता का प्रचुर उल्लेख भारतेन्दु तथा उनके मंडल द्वारा लिखे गए साहित्य में मिलेगा।
जब भूमि व्यक्तिगत सम्पत्ति हो गई और उत्पादन के वितरण का ढंग बदल गया तो पुराने सामाजिक सम्बन्धों के स्थान पर नए सामाजिक सम्बन्ध बनने लगे। सामूहिक खेती के नष्ट होने के कारण सम्बन्धों की रागात्मकता टूटने लगी। व्यक्ति के अपने-अपने स्वार्थ हो गए। इसलिए अर्थ पर टिका हुआ स्वार्थ आत्मपरक हो गया। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बटिया स्वार्थ का जन्म होता है और यांत्रिकता के कारण, जो पूँजीवाद का अगला धरण हैं, अकेलेपन या एलियनेशन का |
पहले सरल ग्राम-व्यवस्था में पारस्परिक झगड़ों का निपटारा पंचायतों में हो जाता था। किंतु नई अर्थ-व्यवस्था के कारण पारस्परिक सम्बन्ध जटिल हो गए। अब पंचायतों द्वारा उनका फैसला नहीं हो सकता था। ऐसी स्थिति में नई संस्थाओं का जन्म हुआ और पंचायतों के स्थान पर कचहरियां स्थापित की गईं।
पुरानी व्यवस्था में भी अलगाब था किंतु वह अलगाब एक प्रकार का था और नई व्यवस्था में जो अलगाव आया वह दूसरी प्रकार का था। पहले एक गाँव दूसरे गाँव से और गाँव शहर से अलग थे। साहित्य-संस्कृति पर नागरिक संस्कृति की गहरी छाप थी। सबको एकसूत्रता प्रदान करने वाला तत्त्व धर्म था। यही कारण था कि भक्तिकालीन काव्य नगर और गाँव को समान रूप से प्रभावित कर सका। रीतिकालीन काव्य में गाँव को नफरत की निगाह से देखा गया है। इसे प्रमाणित करने के लिए बिहारी के दोहे उद्धृत किए जा सकते हैं। आधुनिक काल में गाँव की ओर साहित्यकारों की दृष्टि अवश्य गई पर तब तक किन्हीं अंशों में गॉव बदल चुके थे।
अंग्रेजों की नई व्यवस्था से जनता को घोर संकट का सामना करना पड़ा। खेत अनेकानेक टुकड़ों में बट गए। किसान और सरकार के बीच बहुत से मध्यस्थ हो गए। पैदावार घटती गई। ग्रामीण उद्योग-धंधों के नष्ट होने पर अधिक से अधिक लोग खेती पर आश्रित हो गए। शहरी उद्योग भी अंग्रेजों की कृपा से काल-कवलित हो गए |
पुरानी अर्थ-व्यवस्था के स्थान पर जिस नई अर्थ-व्यवस्था को लागू किया गया उससे अनजाने ही, ऐतिहासिक विकास की अनिवार्य प्रक्रिया के फलस्वरूप भारतीय समाज विकास की ओर अग्रसर हुआ। गाँवों की जड़ता टूटी, गाँव और शहर एक दूसरे से संपर्क में आने के लिए याध्य हुए। एक घेरे में बेंधी हुईं अर्थ-व्यवस्था राष्ट्रोनमुख हो चली। जो देश केवल धार्मिक एकता में बँधा हुआ था वह राष्ट्रीय एकता के प्रति भी जागरूक होने लगा।
जाति प्रथा को भी एक धक्का लगा। जाति आर्थिक वर्गों में बदलने लगी। किंतु जाति प्रथा की जड़ता को तोड़ा नहीं जा सका। आर्थिक वर्गों का उदय तो हुआ पर जातीय उच्चता की भावना बिलीन नहीं हो सकी। अंग्रेजों ने जाने-अनजाने जो सुविधाएँ दीं उनका उपयोग उच्च जाति के लोगों ने ही किया। अंग्रेजों के जमाने में शासन में उन्हीं का प्राधान्य था । राष्ट्रीय आन्दोलन भी उन्हीं के हाथ में था। आज के राजनीतिक दलों के सूत्रधार भी वे ही हैं। साहित्य और कला पर भी इन्हीं का आधिपत्य बना रहा। अंग्रेजों ने इस भेद-भाव का लाभ उठाया। पर सारा दोष अंग्रेजों के कंधों पर लाद कर हम अपने को निर्दोष नहीं कह सकते। जाति प्रथा शिथिल जरूर हुई इसमें कोई संदेह नहीं है।
नए-नए आर्थिक वर्गों का जन्म हुआ। उच्चवर्ग और श्रमिक के अतिरिक्त एक नए मध्य वर्ग का उदय हुआ। आधुनिक काल में उस बर्ग की भूमिका ही सबसे अधिक क्रांतिकारी कही जायगी।
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