आधुनिक हिंदी का इतिहास
खड़ीबोली का आरम्भिक गद्य
अंग्रेजों के आगमन के पूर्व गाँव और नगर सामान्यतः अलग-अलग स्वतन्त्र इकाइयाँ थीं। उनके निवासियों को वस्तु-विनिमय के लिए प्रायः बाहर नहीं जाना पड़ता था। किन्तु पुरानी अर्थ-व्यवस्था के टूटने और यातायात के नये साधनों के उपलब्ध होने पर लोगों को जीविका अथवा वस्तु-विनिमय के लिए बाहर जाना पड़ा। इस तरह देश धीरे-धीरे आर्थिक एकसूत्रता में बैंधता गया। पारस्परिक सम्पर्क तथा भावों और विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक सामान्य भाषा का होना जरूरी था। यह भाषा हिन्दी या हिन्दुस्तानी ही हो सकती थी।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नई अर्थ-व्यवस्था ने इस भाषा को जन्म दिया। भाषा का जन्म इस प्रकार नहीं हुआ करता। कोई बुनियादी बोली, अनेक ऐतिहासिक कारणों से विकसित होकर भाषा का रूप धारण कर लेती है। नई अर्थ-व्यवस्था ने दिल्ली-मेरठ की बोली को सम्पर्क-भाषा के रूप में विकसित होने में सहायता पहुँचाई। दिल्ली-मेरठ के आस-पास की भाषा, जिसे अमीर खुसरो और अबुल फजल ने देहलवी कहा है, हिन्दी ही है।
हिन्दी, हिन्दुवी, रेखता, खड़ीबोली हिन्दी शब्द का प्रयोग कब से आरम्भ हुआ, इसके सम्बन्ध में सुनिश्चित रूप सेकुछ कह सकना कठिन है। पर इतना सच है कि हिन्द, हिन्दू, हिन्दी शब्द का प्रयोग पहले-पहल मुसलमानों ने किया। ईरानी सप्राट दारा के अभिलेख में “हिन्दु’ शब्द भारत के लिए आया है। अन्त्य उ के लोप होने पर हिन्दु का हिन्द हो गया। हिन्द में ईरानी के विशेष बोधक प्रतयय ईक के जुड़ जाने ने हिन्दीक हुआ। क के लोप होने पर हिन्दी हो गयी। हिन्दी का तात्पर्य था भारत। यहाँ की भाषा को जवान-ए-हिन्दी कहा जाता रहा है। नौशेरवोँ (५३१-९७६ ई०) के समय में बजरोया ने पंचतंत्र का जो अनुवाद किया है उसकी भूमिका में इसे ‘जबान-ए-हिन्दी” से अनूदित किया बताया गया है। स्पष्ट है कि उस समय भी हिन्दी का अभिप्राय भारत से था|
खुसरो की ‘खालिकवारी’ अप्रामाणिक रचना है। अन्य स्थलों में हिन्दी से उसका अभिप्राय भारतीय से है। भाषा के अर्थ में उसने हिन्दवी पर “हिन्दुरई’ का प्रयोग किया है, तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिन्दवी गोय जवाब ।’ हिन्दवी या हिन्दुई का प्रयोग मध्यदेश की भाषा के लिए किया गया। हिन्दवी भी शौरसेनी अपभ्रंश से निकली थी। भाषा उपनिषद्, गोरा बादल की बात, रानी केतकी की कहानी की खड़ीबोली को उनके कर्त्ताओं ने हिन्दवी कहा है।
मध्यदेश की भाषा को यहाँ के लोग भाषा कहते थे। कबीर, जायसी, तुलसी, फ्शशछ केशवदास आदि ने भाषा शब्द का ही प्रयोग किया है। हिन्दवी और भाषा दोनों समानार्थक थे.
हिन्दवी का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया और भाषा का प्रयोग यहाँ के हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों ने। चन्द्रबली पाण्डेय ने हिन्दवी को मुसलमानों की भाषा माना है। (उर्दू रहस्य, पृ० ४०-४६) पर यह भ्रम केवल इसलिए हुआ कि हिन्दवी का भाषा के अर्थ में प्रयोग केवल मुसलमानों ने किया है। किन्तु हिन्दवी भाषा ही थी–साहित्यिक भाषा। खुसरो ने अपने ग्रंथ ‘नुहेसिपर” में उस समय की ग्यारह भाषाओं का उल्लेख किया है, जिनमें हिन्दवी का नाम नहीं है, देहलवी का है। अनुमान लगाया जा सकता है कि देहलवी बोलचाल की भाषा थी और हिन्दवी साहित्य की। अबुल फजल की “आईने अकबरी’ में भी देहलवी का उल्लेख मिलता है।
यह देहलवी ही दक्षिण में (१५वीं शताब्दी ई०) दक्खिनी हिन्दी के नाम से विख्यात हुई। शाही मीराजी (१४७५४ ई०), शाहबुर्हनिद्दीन (१५८२ ई०), मुल्ला बजही (१६३५४ ई०) आदि ने देहलवी को ‘हिन्दी बोल; ‘हिन्दी जबाँ’ कहा है। इसी समय से हिन्दी शब्द-प्रयोग की अखंड परम्परा चलती है। सन् १७७३ ई० में सूफी कवि नूर मुहम्मद लिखता है “हिन्दू मग पर पाँव न राख्यों। का जो बहुते हिन्दी भाख्यों।’ लगता है कि १चवीं शताब्दी के उत्तार्ध में यह शब्द हिन्दुओं में भी प्रचलित हो गया था। इसी शताब्दी में नातिख्, सौदा और मीर ने अपने शेरों को हिन्दी-शेर कहा है) गालिब ने अपने खतों में उर्दू हिन्दी रेख्ता को कई स्थलों पर एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है।
फोर्ट विलियम कालेज के हिन्दी अध्यापक गिलक्राइस्ट हिन्दी, हिन्दुस्तानी, उर्दू और रेखता आदि को समानार्थी समझते थे। इससे जाहिर है कि हिन्दी उस भाषा के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा था, जो अरबी-फारसी बहुल होती जा रही थी। गिलक्राइस्ट के हिन्दी-व्याकरण कवानीन सर्फ वे न हो हिन्दी को इसके प्रमाण में पेश किया जा सकता है। किन्तु अरबी-फारसी प्रधान हिन्दी जनता की भाषा कभी भी नहीं रही। १८१२ ई० में कैप्टन टेलर ने फोर्ट विलियम कालेज के वार्षिक विवरण में लिखा है--” मैं केवल हिन्दुस्तानी या रेख्ता का जिक्र कर रहा हूँ जो फारसी लिपि में लिखी जाती है–
“मैं हिन्दी का जिक्र नहीं कर रहा, जिसकी अंपनी लिपि है जिसमें अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग नहीं होता और मुसल्लमानी आक्रमण के पहले जो भारतवर्ष के समस्त उत्तर-पश्थिम प्रान्त की भाषा थी।”
(इंपीरियल रेकार्ड, जिल्द ४, पृ० २७६-७४७) पश्चिमोत्तर प्रान्त की यही भाषा धीरे-धीरे हिन्दी के रूप में प्रतिष्ठित हो गई । पहले ही कहा जा चुका है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग उत्तर भारत के लिए किया जाता रहा है। इसलिए इस विशाल प्रदेश की भाषाओं को हिन्दी कहा जाने लगा। व्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, मैथिली आदि का अन्तर्भाव भी इसी में हो जाता है।
किन्तु भाषाशात्रियों की दृष्टि में केवल पश्चिम-उत्तर प्रदेश की भाषा में खड़ीयोली और ब्रजभाषा और उनकी बोलियाँ ही हिन्दी के अन्तर्गत आती हैं। ग्रियर्सन ने राजस्थानी को गुजराती के अंतर्गत माना है। पर राजस्थानी की टूंठाहाड़ी और मेवाती गुजराती की अपेक्षा हिन्दी के निकट है। मैथिली और भोजपुरी को भी हिन्दी से अलग स्वतंत्र माना जाने लगा है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इनमें अन्तर अवश्य है किन्तु ये हिन्दी-परिवार की ही भाषाएँ हैं। उनका साहित्य हिन्दी के ही अन्तर्गत माना जाता है। पठन-पाठन की दृष्टि से इन सभी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी ही माना जाता रहा है और हिन्दी साहित्य के इतिहास में सभी का समावेश होता रहा है | किन्तु आधुनिक युग में खड़ीबोली साहित्य की भाषा वनी।
पथ के क्षेत्र में खड़ीयोली के साथ-साथ ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी और मैथिली में रचनाएँ होती रही हैं। वास्तविकता तो यह है कि परिनिष्ठित काव्य इन्हीं में लिखे गये। पर गद्य का विकास खड़ीयोली में ही हुआ। जो कुछ गधघ ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली में मिलता है वह अव्यवस्थित, लचखर और कंयभूती अनुवाद है। इसलिए जहाँ तक गद्य का सम्बन्ध है साहित्य के इतिहास में उनका कोई स्थान नहीं है।
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